Friday, December 10, 2010

मठाधीश होने के मायने!

"राम राज्य में प्रजा सर्वोपरि थी. प्रजा का कार्य राजा की सर्वोच्च प्राथमिकता थी. राजा राम राज भवन में आकर हर रोज लक्ष्मण को आज्ञा देते कि देखो लक्ष्मण द्वार पर कोई कार्यार्थी तो नहीं आया है. लेकिन राम राज्य में व्यवस्था कुछ ऐसी थी कि लोगों को काम लेकर राजा के पास आने की जरूरत नहीं पड़ती थी. हर रोज लक्ष्मण बाहर जाकर देखते और लौटकर यही जवाब देते कि द्वार पर कोई भी नहीं है. एक बार लक्ष्मण जब बाहर देखने गए तो उनको एक कुत्ता दिखा, जिसके माथे से रक्त बह रहा था और वो लक्ष्मण की ओर ही देख रहा था. लक्ष्मण ने उससे पूछा कि उसको क्या काम है, तो कुत्ते  ने कहा कि वह अपनी बात राजा राम से ही कहना चाहता है. लक्ष्मण ने ये बात राज सभा में जाकर बताई तो राजा राम ने तुरंत उस कुत्ते को अन्दर बुलवाया. 
राजा राम ने उससे पूछा कि उसकी ये हालत किसने की है तो उसने बताया कि- नगर में सर्वार्थसिद्ध नमक एक विद्वान भिक्षु है तो ब्राह्मणों के घर में रहता है उसने अकारण ही मुझ पर प्रहार किया है. मैंने उसका कोई अपराध नहीं किया था. राजन आप मुझे न्याय दें. 

कुत्ते की बात सुनकर राजा राम ने एक द्वारपाल को भेजकर सर्वार्थसिद्ध नाम के उस भिक्षु को बुलवा लिया. राजा राम ने उस भिक्षु से पूछा कि- तुमने अकारण ही इस कुत्ते पर क्यों प्रहार किया. तब उस भिक्षु ने जवाब दिया कि महाराज मेरा मन क्रोध से भर गया था इसलिए मैंने इसे डंडे से मारा. भिक्षा का समय बीट चुका था तब भी भूखा होने के कारण मैं भिक्षा के लिए दर दर घूम रहा था. ये कुत्ता बीच रस्ते में खड़ा था. मैंने बार बार कहा कि मेरे रस्ते से हट जाओ, लेकिन ये अपनी ही चाल में मस्त चला जा रहा था. भूख के कारण क्रोध आ गया और मैंने इस पर प्रहार कर दिया. मैं अपराधी हूँ आप मुझे दंड दीजिये. राजा से दंड पाकर मेरा पाप नष्ट हो जायेगा. 

तब राजा राम ने अपने सभासदों से पूछा कि इस भिक्षु को क्या दंड दिया जाए क्योंकि दंड का सही प्रयोग करने पर ही प्रजा सुरक्षित है. राम की राजसभा में उस समय बहुत से विद्वान मौजूद थे उन सभी ने मंथन करने के बाद राजा से कहा कि- महाराज ब्राह्मण दंड द्वारा अवध्य है. उसको शारीरिक दंड नहीं मिलना चाहिए, यही शास्त्रों का मत है. लेकिन राजा सबका शासक होता है.

उन सबकी ऐसी मंत्रणा सुनकर उस कुत्ते ने कहा कि महाराज आपने  प्रतिज्ञापूर्वक मुझे न्याय देने की बात कि है. अगर आप मुझ से संतुष्ट हैं और मेरी इच्छानुसार वर देना चाहते हैं तो मेरी बात सुनिए. आप इस ब्राह्मण को मठाधीश बना दीजिये. इसको कालंजर में एक मठ का आधिपत्य प्रदान कर दीजिये.

राजा राम ने तुरंत उस ब्राह्मण को मठाधीश घोषित कर दिया. इस प्रकार वह ब्राह्मण बहुत खुश हुआ और हाथी की पीठ पर बैठाकर उसको वहां से विदा किया गया.

तब राजा राम के मंत्रियों ने मुस्कुराते हुए पूछा कि महाराज ये दंड था या पुरस्कार. इसपर राजा राम ने कहा कि कर्मों की गति बड़ी गहरी और न्यारी है, किस कर्म का क्या नतीजा भोगना पड़ता है इसका तुमको नहीं पता ये इस कुत्ते को पता है. फिर श्री राम की पूछने पर उस कुत्ते ने पूरी सभा के समक्ष बताया- जघुनंदन मैं पिछले जन्म में कालंजर के मठ में मठाधीश था और धर्मानुकूल आचरण करता था. मुझे ज्ञात नहीं मैंने पड़ पर रहते हुए कोई धर्म के प्रतिकूल कर्म किया हो. लेकिन फिर भी मुझे ये घोर अवस्था और अधम गति मिली. तो सोचिये ये ब्राह्मण जो इतना क्रोधी है, धर्म छोड़ चुका है, दूसरों का अहित करता है, क्रूर, कठोर, मूर्ख और अधर्मी है, ये तो अपने साथ ऊपर और नीचे की सात पीढ़ियों को भी नर्क में गिरा देगा."

ये प्रसंग अचानक मुझे वाल्मीकि रामायण में मिल गया. मुझे लगा कि इसको लिखना बहुत जरूरी है. आज जहाँ देखो मठाधीशों का बोलबाला है. तमाम संस्थाओं के मुखिया बने बैठे लोग एक तरह से मठाधीश ही तो हैं. पत्रकारिता में तो ये शब्द खासतौर से विद्यमान है. महर्षि वाल्मीकि ने इस प्रसंग के माध्यम से बहुत सरल तरीके से समझा दिया है कि मठाधीश होने के क्या मायने होते हैं. जो लोग छोटी-छोटी संस्थाओं के प्रमुख होने के नाते बड़े-बड़े अहंकार पाले बैठे हैं उनके लिए इस प्रसंग में कई सन्देश छिपे हैं. पत्रकारिता के मठाधीशों को तो कम से कम समझ ही लेना चाहिए कि उनका भविष्य कैसा हो सकता है.  सदग्रंथ हमें बड़े सहज तरीके से जीवनोपयोगी सूत्र बता देते हैं लेकिन हम हैं कि उनकी तरफ ध्यान ही नहीं देते. इस झूठी चमक-दमक से अगर बाहर निकलें तो शायद हमें जीवन की सच्चाइयाँ खुद-ब-खुद समझ आ जाएँ.

Sunday, October 3, 2010

हम अपने पिता का कहना नहीं मानते!

महात्मा गांधी का सपना था कि भारत में रामराज्य की स्थापना हो और उन्होंने ये सपना भारत के लोगों को भी दिखाया। १५ अगस्त १९४७ से लेकर अब तक भारत में गाहे-बगाहे राम राज्य की चर्चा किसी न किसी मंच से होती आई है। लेकिन अगर पॉलिटिकल पंडितों की मानें तो 'राम राज्य' एक यूटोपिया है, एक ऐसा काल्पनिक शब्द जिसका इस्तेमाल कर राजनीतिज्ञ आवाम को भ्रम में रखते हैं। फिर भी राम राज्य आज भी भारत की आवाम का सपना है। एक ऐसा सपना जो दिमाग में खिंची धर्म की दीवारों को तोड़ चुका है। राम मंदिर पर भले ही तलवारें खिंची हों, लेकिन राम राज्य भारत में आए इसपर सब सहमत हैं। पहले ये सपना गांधी ने दिखाया और फिर भाजपा ने। लेकिन ये सपना केवल मंच, माइक और रैलियों तक ही सिमटा रहा। इसको हकीकत में बदलने की कोशिश न महात्मा गांधी की कांग्रेस ने ही की और न भाजपा ने। भाजपा भले ही केंद्र में लंबे समय तक न रही हो, लेकिन कई राज्यों में वह लगातार कब्जा जमाए है और वहां भी राम राज्य की दिशा में कोई ठोस प्रयोग होता नहीं दिखता। शायद यही कारण है कि राम राज्य को यूटोपिया का दर्जा दिया गया।

यहां संक्षेप में ये भी बताते चलें कि जिस राम राज्य की बात गांधी से लेकर आज तक के नेता करते आए हैं, आखिर उसमें ऐसा क्या था कि हम आज भी वैसे शासन की इच्छा रखते हैं। संदर्भ के लिए अगर केवल तुलसी की रामचरितमानस को ही लें तो हम पाएंगे कि राम के शासन में किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं था। न तो कोई किसी से बैर रखता था और न किसी तरह का भेदभाव था। सभी को समान अधिकार प्राप्त थे। सब अपने-अपने धर्म (कर्तव्यों) का भली-भांति पालन करते थे। न वहां भय था न कोई रोग और न शोक. न तो शारीरिक कष्ट थे और न सांसारिक, प्राकृतिक आपदाएं भी नहीं आती थीं। समय से बारिश होती थी और पशु-पक्षी स्वच्छंद रूप से विहार करते थे। यानि प्रकृति एकदम संतुलित थी। सभी नागरिक ज्ञानी, चरित्रवान और परोपकारी थे। यानि शिक्षा व्यवस्था बेहद उच्च स्तर की थी। सबसे बड़ी बात जो कही वो ये कि अल्पमृत्यु भी नहीं थी। सुनने में ये सब शायद एक सपनों की दुनिया लगे, लेकिन जरा सोच कर देखें कि उस शासन का कैसा सिस्टम रहा होगा? अगर आज की जुबान में कहें तो एकदम फूलप्रूफ सिस्टम।

इसके उलट जरा आज के भारत पर नजर डालते हैं। आजादी से लेकर आज तक भारत सरकार के सामने समस्याओं का अटंबार लगता जा रहा है, लेकिन किसी भी समस्या का कोई ठोस निराकरण नहीं निकल पा रहा। प्राकृतिक आपदाएं हों, अंदरूनी समस्याएं या फिर बाहरी खतरे हर मोर्चे पर हम ढुलमुल खड़े हैं। न तो हम अपने लोगों की बीमारियों से रक्षा कर पा रहे हैं और न तरह-तरह के आतंकवादियों से। कश्मीर से लेकर आसाम तक, आतंकवाद से लेकर नक्सलवाद तक हम हर समस्या के सामने घुटने टेक कर खड़े हैं। हम कोई समाधान नहीं निकाल पा रहे, न तो शक्ति के बल पर और न प्रीति के बल पर। ऊपर से तुर्रा ये कि हम विकास कर रहे हैं, विश्व में एक शक्ति के रूप में उभर रहे हैं। आर्थिक विकास का छद्‌म चश्मा उतार कर देखें तो दिखेगा कि हम एक मुगालते में जी रहे हैं। ये एकदम २००४ के इंडिया शाइनिंग के माफिक है।

राष्ट्र निर्माण करते-करते हम चरित्र निर्माण करना भूल गए। आज हमने नेशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर तो खड़ा कर लिया है लेकिन देश के पास नेशनल कैरेक्टर नहीं बचा। ये नेशनल कैरेक्टर की ही कमी है कि तमाम योजनाओं में करोड़ों बहाने के बावजूद उसका लाभ आम लोगों तक नहीं पहुंच पाता। ये नेशनल कैरेक्टर की ही कमी है कि आज कॉमनवेल्थ खेलों में ७० हजार करोड का खजाने खोलने के बावजूद हमारे पांव थर-थर कांप रहे हैं और देश की इज्जत दाव पर है। इस सबकी जड में कहीं न कहीं हमारे एजुकेशन सिस्टम का ही दोष है। जिन बालकों के संग खेलते वक्त पंडित नेहरू उन्हें देश का भविष्य कहकर पुकारते थे, उन बालकों को हम अच्छा नागरिक बनने की दिशा ठीक से नहीं दे पाए। अब वही बालक विभिन्न पदों पर बैठे देश का बंटाधार कर रहे हैं।

गांधी ने अपने राम राज्य का खाका सत्य और अहिंसा की नींव पर खड़ा किया था। वो चाहते कि विकास की बयार गांव से शहर की ओर बहे। बेहूदे विकास के नाम पर पर्यावरण के साथ खिलवाड न किया जाए। नागरिक तप और त्याग का जीवन जिएं। ऐसी अर्थव्यवस्था हो जो सबका पेट भर सके। लेकिन हुआ क्या? सत्ता मिलते ही गांधी के विचार को दरकिनार कर दिया गया और विकास का पश्चिमी मॉडल अपनाया गया। विकास शहरों से शुरू किया गया और गांव पिछडते चले गए, जिसका परिणाम निकला पलायन। स्थिति ये बन गई कि बार-बार दिल्ली की मुखयमंत्री को कहना पड़ा कि दिल्ली अब और लोगों को जगह नहीं दे सकती, कृपया दूसरे राज्यों से लोग यहां आकर न बसें।

हम अपनी नदियों, पहाड़ों और जंगलों को नहीं बचा पा रहे। गंगा-यमुना को साफ करने के नाम पर बार-बार प्रोजेक्ट लांच कर खानापूर्ति की गई लेकिन उनको गंदा करने वाली इंडस्ट्रीज के मालिकों से चुनावी फंड पाने के लिए राजनीतिज्ञ गलबहियां करते रहे। बाजारवाद और भोगवाद इतनी गहराई तक फैल गया कि तप और त्याग की बातें बेहद दकियानूसी लगीं। प्रकृति के साथ तो हमने ऐसा घिनौना बर्ताव किया कि हम उसको अपनी दासी मान बैठे हैं। हालांकि प्रकृति बार-बार अपनी ताकत का ऐहसास कराकर चेताने की कोशिश भी करती है, लेकिन हम उसके इशारे को नहीं समझ पाते। इस साल के मॉनसून ने समूचे उत्तर भारत को पानी पिला दिया। कॉमनवेल्थ की आयोजन कमेटी को तो ये मॉनसून खासतौर से याद रहेगा। खैर, जीव जंतुओं और पर्यावरण की रक्षा तो हम बाद में करेंगे, पहले तो हमारे नागरिक ही देश की सीमाओं में सुरक्षित नहीं हैं। हमको कोई भी, कभी भी, कहीं भी मार जाता है और सरकार के पास बयानों के मलहम के सिवा कुछ नहीं होता। शायद इसीलिए अब ये जुमला आम हो चला है कि भारत राम भरोसे चल रहा है।

जहां तक बात अल्पमृत्यु की है तो आज भारत में वह भी चर्म पर है। अल्पमृत्यु का सबसे बड़ा कारण बन रहे हैं तमाम तरह के हादसे और जानलेवा बीमारियां। हमने आज तक लड़े गए युद्धों में इतनी जानें नहीं गंवाई जितने नागरिक हमने देश की सडकों पर गंवा दिए। हमने ऐसी-ऐसी कारों को अपनी सडकों पर दौडने की इजाजत दे दी जिनके लिए भारतीय सडकें बिल्कुल अनुकूल नहीं हैं। हाईवे पर अधिकतम गति सीमा ६० किमी प्रति घंटा की है लेकिन गाडियों के अंदर २०० किमी प्रति घंटे तक का प्रावधान है। हाई स्पीड पर गाड़ी चलाने पर हम चालक का तो चालान काटते हैं, लेकिन गाड़ी में हाई स्पीड का प्रावधान देने वाली कंपनी के प्रति हमारा रवैया क्या होना चाहिए? वैसे इसपर कोई यह भी सवाल उठा सकता है कि देश का नागरिक कम उम्र में मरता है या उम्र पूरी करके, इसमें शासन की भूमिका कहां पर है। दरअसल यहीं पर राम राज्य का अंतर छिपा है। हम भारत पर भारतीयता की दृष्टि से शासन करने के बजाय एक विदेशी चश्मा लगाकर राज कर रहे हैं। गांधी के स्वदेशी मंत्र में केवल विदेशी चीज़ों की होली जलाना भर नहीं था, उनके 'स्वदेशी अपनाओ' में गहरा दर्शन छिपा था।

१९४७ से लेकर आज तक भारत में भ्रष्टाचार का बोलबाला रहा। पिछले ६३ सालों से हम अलग-अलग सुरों में देश के अंदर व्याप्त भ्रष्टाचार का रोना रो रहे हैं। लेकिन आज तक उसका खात्मा करने की दिशा में सिवाय असफलता के कुछ नहीं मिला। सर्वोच्च स्थानों से लेकर निचले तबके तक निजी हितों ने राष्ट्र हितों के ऊपर वरीयता प्राप्त कर ली है। उपभोक्तावाद ऐसा बढ़ा है कि हम अब केवल मुनाफे की भाषा बोलते और समझते हैं। बिना फायदे के तो अब हम ईश्वर को भी नहीं पूजते। राष्ट्रपिता ने तो बताया तप और त्याग का जीवन लेकिन राष्ट्र को दिया गया भोग और विलास का जीवन। धन और संपदा का लोभ इतना सिर चढ़ा कि जो धन राष्ट्र के विकास में लगना चाहिए था वह स्विस बैंकों में पड़ा सड़ रहा है। देश का शासक स्वयं देश के लिए घुन बन गया और लगातार उसको खोखला कर रहा है।

राम राज्य में दंड का भी प्रावधान था, लेकिन प्रजा इतनी अनुशासित थी कि दंड देने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। पर राजा राम ने बार-बार इस बात पर बल दिया कि अगर उचित समय पर उचित दंड दे दिया जाए तो बाकी प्रजा में उसका गहरा असर होता है। लेकिन आजाद भारत में न्यायिक प्रक्रिया किस तरह काम करती है ये बताने की आवश्यकता नहीं। देश की अस्मिता पर हमला करने वाले आतंकवादियों को सजा सुनाई गई, लेकिन उसको अमलीजामा पहनाने में सरकार के हाथ कांप रहे हैं। ऐसे में आम लोगों का देश के कानून में विश्वास कैसे दृढ बने। इसीलिए लोग कानून तोडने से भी नहीं डरते।

राजा राम का एक और विशेष गुण था। चक्रवर्ती सम्राट होने के बावजूद वे स्वयं अयोध्या के लोगों के बीच जाकर उनकी समस्याओं का आकलन करते थे। लेकिन आज के शासक ने आम लोगों से बहुत बड़ी दूरी बना ली है। राजा राम के दरबार में हर रोज कार्यार्थियों के काम और शिकायतें सुनने का प्रावधान था। वे लक्ष्मण को द्वार पर देखने को भेजते कि कहीं कोई अपना काम लेकर तो नहीं आया। लेकिन लक्ष्मण को द्वार पर कभी कोई नहीं मिलता। इसका अर्थ ये नहीं कि लोगों को बोलने का अधिकार नहीं था। राजा राम के शासन में प्रजा की राय सर्वोपरि थी, जिसके कारण राम को सीता का भी परित्याग करना पड़ा। द्वार पर कोई फरियादी न होने का अर्थ है कि निचले पदों पर बैठे राजा राम के प्रशासक बखूबी अपने काम को निभा रहे थे। आज उसका उल्टा है। जिला स्तर पर देखें तो डीएम और एसएसपी के ऑफिस में सुबह से ही शिकायत लेकर आए लोगों का जमावड़ा लग जाता है। इसका सीधा सा अर्थ यही है कि डीएम् एसएसपी से नीचे बैठे कर्मचारी अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन नहीं कर रहे।

इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर साइंटिफिक स्प्रिचुअलिज्म के संयोजक डॉ. गोपाल शास्त्री से जब मैंने राम राज्य के बाबत पूछा तो उनका कहना था कि राम राज्य तब आया जब अयोध्या के लोगों ने १४ वर्ष तक राम के इंतजार में कठिन तप किया। सभी अयोध्यावासियों ने कठोर तप करके राम के प्रति अपना समर्पण प्रदर्शित किया। उस १४ वर्ष के तप और त्याग ने अयोध्यावासियों को हर दृष्टि से एक श्रेष्ठ इंसान बनाया। जबकि उधर स्वयं राम वनवास में और अयोध्या के कार्यवाहक राजा भरत नंदिग्राम में तपस्वी का जीवन व्यतीत कर रहे थे। जब राजा और प्रजा दोनों ने १४ वर्ष तक कठोर तप और त्याग के जीवन का अनुसरण किया तो अयोध्या में राम राज्य की स्थापना हुई। एक ऐसा राज्य जो राम के पिता दशरथ के शासन से भी श्रेष्ठ सिद्ध हुआ और एक मिसाल बन गया। आज तक लोग उस शासन का सपना देख रहे हैं।

हमने महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा तो दे दिया। लेकिन तप और त्याग के जीवन का जो उदाहरण गांधी ने पेश किया उसको न तो देश के शासक ने अपनाया, न प्रशासक ने और न आम लोगों ने। हमने अपने बीच से एक श्रेष्ठ पुरुष को चुन लिया और अखिल विश्व को दिखाने के लिए उसको राष्ट्रपिता का दर्जा दे दिया, लेकिन हम अपने राष्ट्रपिता की वे संतानें हैं जो अपने पिता का कहना मानने को तैयार नहीं। 

Saturday, March 20, 2010

सुख-दुःख की पहचान जरुरी है


रामचरितमानस में जब गरुण ने काकभुसुंडी जी से पूछा कि संसार का सबसे बड़ा सुख और सबसे बड़ा दुख क्या है तो इस सवाल का जवाब गोस्वामी जी ने कुछ इस प्रकार कहलवाया-

नहिं दरिद्र सम दुःख जग माही। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥

यानी दरिद्रता के समान संसार में कोई दुःख नहीं है जबकि संत के मिलन के समान संसार में कोई सुख नहीं।

वैसे दरिद्रता का उल्टा तो सम्पन्नता होता है। जब दरिद्रता सबसे बड़ा दुःख है तो सम्पन्नता सबसे बड़ा सुख होना चाहिए। लेकिन गोस्वामी जी ने सम्पन्नता में सुख नहीं बताया। उन्होंने सुख बताया संतों के दर्शन में। और संत का मतलब भी केवल भगवाधारियों से नहीं है, अर्थ है व्यक्ति के स्वभाव से। संत स्वभाव वाले लोगों का संग करने के समान संसार में सुख नहीं।

गोस्वामी जी ने एक ही चौपाई में पूरी बात समझा रखी है। लेकिन दुनिया समझने को तैयार नहीं। ऊपर से लेकर नीचे तक सब पैसे की दौड़ में शामिल हैं। पूरा ध्यान इसी तरफ है कि अधिक से अधिक पैसा किस तरह कमाया जाये। चलिए कमाने में कोई बुराई भी नहीं है, लेकिन ये क्या कि पैसे कमाने के चक्कर में दूध की जगह यूरिया बेचा जा रहा है, धनिये की जगह घोड़े की लीद, मावे की जगह जहर, सच की जगह झूठ और न जाने क्या क्या। और ये उस देश का हाल है जहाँ नीति का राज था। मंदिर और संतो की शरण में भी अगर कोई जा रहा है तो केवल स्वार्थ से। किसी को अपनी ज़िन्दगी में चमत्कारिक बदलाव देखने की चाह है तो कोई मोटा दान करके इनकम टैक्स से मुक्ति चाहता है। इसके बदले में भी नाम की चाह है।

गोस्वामी जी का इशारा साफ़ है कि दरिद्रता में बड़ा दुःख है, इसलिए दरिद्रता को दूर रखने के उपाय जरूरी हैं। चाहे आर्थिक दरिद्रता हो या मानसिक दरिद्रता या फिर शारीरिक दरिद्रता। कहा जाता है कि जो लोग गरीबी से तंग आकर आत्महत्या कर लेते हैं वे लोग मानसिक रूप से भी गरीब होते हैं। इसलिए हर तरह की दरिद्रता से बचने की जरुरत है। लेकिन गोस्वामी जी अगली पंक्ति में ही साफ़ कर देते हैं कि सुख तो सम्पन्नता में भी नहीं है। दुःख तो वहां भी मिलेगा लेकिन वह दरिद्रता के बराबर बड़ा नहीं होगा। इसलिए पूरा जीवन धन के लिए नहीं अर्पित करना है। जीवन का उद्देश्य धन के लिए खुद को न्योछावर करना नहीं होता। जीवन का उद्देश्य तो बताया गया है धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष। लेकिन इन्सान केवल धन के ही पीछे भगा जा रहा है। अर्थ कमाना है लेकिन धर्म के मार्ग पर चलकर और मोक्ष को लक्ष्य बनाकर कामनाओं की पूर्ती करनी है।

लेकिन पथ भ्रष्ट सा इन्सान दिशा विहीन भागा चला जा रहा है एक अंत हीन दौड़ में। और दिखाने की कोशिश ये कर रहा है कि वह नॉर्मल है, जबकि ऐसा है नहीं। एक नकली चेहरा ओढा हुआ है। फ़िल्मी दुनिया के लोगों का जब भी इंटरव्यू लिया जाता है या जब भी वे सार्वजनिक मंच पर आते हैं तो वे अपनी चल-ढाल से यही दिखने की कोशिश करते हैं कि वे बहुत खुश हैं, जबकि असलियत कुछ और होती है। लोगों को यही सच लगने लगता है और वे भी उसी तरफ दौड़ने लगते हैं। आज का समाज टीवी से सबसे ज्यादा प्रभावित है। वही चाल-ढाल, वही रंग, वही वेश-भूषा सब कुछ वही दिखाने की कोशिश चल रही है। क्योंकि वह दुनिया नकली है तो बदले में नकली ही सुख प्राप्त होता है।

इसलिए सुख और दुःख के सही अर्थ और समझना जरुरी है।

Tuesday, March 16, 2010

नाम पर नहीं अपने काम पर ध्यान दें


राम काज करिबे को आतुर, हनुमान जी को राम काज कि इतनी लगन थी कि उन्होंने कभी अपना ध्यान ही नहीं किया। उनको न नाम की चिंता थी, न आराम की, न किसी मान और सम्मान की चाह। उनके लिए तो बस राम जी का काज होना जरुरी था।

जब भगवन राम का संधि प्रस्ताव लेकर अंगद को रावण के पास जाना पड़ा तब रावण ने अंगद से कहा कि राम की सेना में एक भी ऐसा बलशाली नहीं जो मेरा मुकाबला कर सके। राम खुद पत्नी के वियोग में दुखी है, जामवंत बूढा है, विभीषण तो स्वाभाव से कायर है, सुग्रीव कितना वीर है सब जानते हैं, इनमें से कोई मेरे सामने नहीं ठहरता। लेकिन हाँ एक बन्दर है जो थोडा बलशाली है, जिसने लंका को आग लगे थी। बाकी सब तो बेकार हैं। इस पर अंगद ने रावण के दरबार में अपना पांव जमाकर अपने और राम के बल का एहसास रावण को करा दिया था।

इसके बाद जब अंगद वापस अपने शिविर में आये तो उन्होंने हनुमान जी से यही पुछा कि तुमने पूरी लंका को जला दिया, रावण के मद को चूर कर दिया और वहां अपना नाम तक बता कर नहीं आये। रावण तुम्हारा नाम तक नहीं जानता। इस पर हनुमान जी का जवाब था कि मैं वहां अपना नाम करने गया था या राम जी का काम करने गया था।

हनुमान जी हमें काम के प्रति समर्पण सिखाते हैं। हनुमान जी के भक्त तो बहुत मिल जायेंगे, हर मंगल को लम्बी-लम्बी कतार मंदिरों में दिखती हैं, लेकिन हनुमान जी को सही में फ़ॉलो करने वाले कम ही हैं। आज अधिकांश लोगों को अपने काम से जयादा अपने नाम की चिंता रहती है। चाहे वह अपना नाम हो, अपने प्रोडक्ट का नाम हो या अपनी कंपनी का नाम। बाकायदा ब्रांडिंग के डिपार्टमेंट बनाये गए हैं, जन संपर्क के माध्यम से पत्रकारों को लुभाने की कोशिश की जाती है। लेकिन काम पर उतना ध्यान नहीं है। बस किसी तरह जल्दी से नाम हो जाये, और कमाई बढे।

दरअसल नाम और यश किसी भी काम का बाई-प्रोडक्ट होता है। जब आप निरंतर कीसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मेहनत करते हैं तो उसके रिजल्ट के साथ आपको यश या अपयश मिलता है। जो खुद फैलता है। न तो उसको कोई रोक सकता है और न कोई जबरदस्ती यश प्राप्त कर सकता है। मीडिया और आधुनिक संसाधनों की मदद से अगर आप ने नाम अर्जित कर भी लिया तो वह ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं है। लेकिन फिर भी लोग नाम के चक्कर में लिए बौराए-बौराए घुमते हैं। पत्रकारों के कंधे दबाते फिरते हैं। और इस सब में काम कहीं पीछे छूट जाता है।

ज्वलंत उदाहरण अपने नेता ही हैं। जिनका काम से ज्यादा अपनी छवि और नाम पर ध्यान रहता है। कॉर्पोरेट घरानों में भी अब ये युद्ध छिड़ गया है। इसका सबसे बड़ा नुकसान ये हो रहा है कि किसी भी व्यक्ति या संसथान की सही इमेज लोगों तक नहीं पहुँच पाती है। जब वास्तविकता का पता चलता है तो कहीं ज्यादा अघात पहुचता है। इसलिए नाम से ज्यादा अपने काम पर ध्यान देने की जरूरत है। इसी में व्यक्ति, समाज और देश का भला छिपा है। वैसे भी रामायण कहती है कि- हानि लाभ जीवन मरन यश अपयश विधि हाथ। ये छः चीज़ें विधि के हाथ छोड़कर अपने काम पर ध्यान देंगे तो आधी मुश्किलें खुद दूर हो जाएँगी।

Friday, January 29, 2010

आशा का दूसरा नाम है त्रिजटा


मनुष्य जीवन सुखों और दुखों का मिलाजुला सामुच्य है। जीवन में सुख हैं तो दुख भी हैं। ऐसा कोई भी नहीं जिसके जीवन में केवल सुख ही लिखे हों। विपत्ति हर किसी पर आती है। लेकिन विपत्ति की घड़ी का इंसान ने किस तरह सामना किया ये देखने की बात है। वैसे तो रामायण साफ कहती है कि 'धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परखिए चारी।।' लेकिन रामायण ये भी बताती है कि विपत्ति काल में ईश्वर आपको अकेला नहीं छोड़ता, कोई न कोई कारण आपके साथ ऐसा जोड़ देता है जो आपकी उम्मीद जगाए रखता है। जरूरत है तो बस ईश्वर के उस संकेत को समझने की।

माता सीता का पूरा जीवन विपत्तियों से भरा रहा। इनमें सबसे बड़ी विपत्ति थी रावण द्वारा सीता का अपहरण। सीता जैसी पतिव्रता स्त्री के लिए राक्षस नगरी लंका में एक पल काटना भी मुश्किल था। लेकिन फिर भी उन्होंने श्री राम के इंतजार में वहां समय बिताया। आखिर कैसे। जिस स्त्री का पति के वियोग में एक पल भी जीना मुश्किल हो उसके लिए इतना समय बिताना कैसे संभव हो गया। अगर थोड़ा सा ध्यान दें तो हमें इसका जवाब मिल जायेगा। ये संभव हो सका त्रिजटा के संग की वजह से। घोर राक्षस नगरी में भी सीता को हिम्मत बंधाने के लिए त्रिजटा मिल गई। सीता ने शायद ही ऐसी कल्पना की होगी कि लंका में उसको कोई ऐसा स्नेही भी मिल सकता है। सीता ने निराश होकर बार-बार खुद को खत्म करने का विचार किया, लेकिन त्रिजटा ने हमेशा सीता के मन में उम्मीदों के दीप जलाए। उसने हमेशा यही कहा कि राम आएंगे और तुमको लेकर जाएंगे। ये त्रिजटा का ढांढस ही था, जिसने सीता को कभी हिम्मत नहीं हारने दी। सीता को त्रिजटा से इतनी आत्मीयता हो गई कि उसके साथ माता और पुत्री का रिश्ता स्थापित कर लिया और कहा कि 'मातु विपति संगिनी तैं मोरी', हे माता तुम इस विपत्ति काल में मेरी संगिनी हो।

ऐसा केवल सीता के साथ ही नहीं हुआ। हर किसी के जीवन में जब विपत्ति काल आता है तो ईश्वर कोई न कोई साधन ऐसा जरूर दे देते हैं जो हमारी हिम्मत को टूटने नहीं देते। हमें केवल ऐसे लोगों को पहचानने की आवश्यकता है। बुरे वक्त में हमें ऐसे लोगों का संग ज्यादा करना चाहिए। निराश करने वालों की बातों पर तो कतई ध्यान नहीं देना चाहिए। रावण ने सीता को बार-बार निराश करने की कोशिश की, लेकिन सीता ने न उसकी बात सुनी और न उसकी ओर देखा। बुरे वक्त में ऐसा हर किसी के साथ होता है। एक ओर ऐसे लोग मिलेंगे जो आपको तरह-तरह से निराश करने की कोशिश करेंगे, आपका मनोबल तोड़ेंगे और आपका मजाक भी उड़ाएंगे, लेकिन बुरे वक्त का ख्याल करके ऐसे लोगों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। हमें ऐसे लोगों के साथ बैठना चाहिए जो हमारी उम्मीद को जगाने वाले हैं। हमें अपने लिए त्रिजटा की तलाश करनी चाहिए। ये त्रिजटा आपको अपने माता-पिता, अपने भाई-बहन या अपने दोस्तों के रूप में आसानी से मिल जाएगी। बस जरूरत थोड़ा सा ध्यान देने की है। क्योंकि हम अपने करीबियों को उतना महत्व नहीं देते इसलिए उनसे विचार-विमर्श करने में सकुचाते हैं। जबकि ऐसा नहीं करना चाहिए।

किसी कारणवश अगर हम अपने नजदीकी लोगों से दूर हैं। परदेस में या फिर दूसरे शहर में तब भी बुरे वक्त में आपको त्रिजटा जरूर मिलेगी, जिस तरह सीता को मिली। क्या सीता ने सोचा होगा कि दुश्मन देश में भी उनको दर्द बांटने वाले मिल जाएंगे। लेकिन ईश्वर ऐसा कभी नहीं करते। बुरा वक्त परीक्षा के लिए आता है और ईश्वर आपका मनोबल बनाए रखने के लिए त्रिजटा को भी जरूर भेजते हैं। चाहे आप किसी भी पेशे में हों, खराब समय का सामना कभी भी किसी को भी करना पड़ सकता है। ऐसे में केवल अपने आस-पास विचरने वाली त्रिजटाओं को पहचानो और उनका संग करो। ऐसे जन न तो आपको निराश होने देंगे और न आपको कभी कोई घातक कदम उठाने देंगे।

आज समाज में अगर डिप्रेशन और आत्महत्याओं के केस इतने ज्यादा बढ़ रहे हैं तो उनका एक मात्र कारण यही है कि इंसान सबकुछ अकेले झेलने पर आमादा है। न तो खुद किसी का दर्द बांटता है और न अपना दर्द किसी से कहता है। ये सही है कि हर किसी से अपने दिल की व्यथा नहीं कहनी चाहिए, लेकिन ईश्वर ने इतनी समझ सबको दी है कि वह अपने हितैषियों की पहचान कर सके। एक बार ऐसे लोगों की पहचान कर लें और फिर अपने दर्द को उनके साथ बांटें और उनके दर्द में भी भागीदार बनें। इससे आप जीवन की कठिनाइयों से आसानी से पार पा सकते हैं। लेकिन अगर आप खुद को अपने तक समेटते चले जाएंगे तो आप बुरे वक्त में बेहद अकेला महसूस करेंगे। जीवन व्यर्थ लगने लगेगा और आपका मन घातक कदम उठाने की राय भी दे सकता है।

इसलिए त्रिजटा को हमेशा अपने आसपास रखो। त्रिजटा उस उम्मीद का नाम है जो कभी आपको गिरने नहीं देती। कठिन से कठिन समय में भी हमेशा आपको आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा देती है। ये त्रिजटा आपके मन में भी हो सकती है और आपके आसपास भी, ये जहां भी हो इसे पहचानो और इसके साथ समय बिताओ।