Saturday, March 20, 2010

सुख-दुःख की पहचान जरुरी है


रामचरितमानस में जब गरुण ने काकभुसुंडी जी से पूछा कि संसार का सबसे बड़ा सुख और सबसे बड़ा दुख क्या है तो इस सवाल का जवाब गोस्वामी जी ने कुछ इस प्रकार कहलवाया-

नहिं दरिद्र सम दुःख जग माही। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥

यानी दरिद्रता के समान संसार में कोई दुःख नहीं है जबकि संत के मिलन के समान संसार में कोई सुख नहीं।

वैसे दरिद्रता का उल्टा तो सम्पन्नता होता है। जब दरिद्रता सबसे बड़ा दुःख है तो सम्पन्नता सबसे बड़ा सुख होना चाहिए। लेकिन गोस्वामी जी ने सम्पन्नता में सुख नहीं बताया। उन्होंने सुख बताया संतों के दर्शन में। और संत का मतलब भी केवल भगवाधारियों से नहीं है, अर्थ है व्यक्ति के स्वभाव से। संत स्वभाव वाले लोगों का संग करने के समान संसार में सुख नहीं।

गोस्वामी जी ने एक ही चौपाई में पूरी बात समझा रखी है। लेकिन दुनिया समझने को तैयार नहीं। ऊपर से लेकर नीचे तक सब पैसे की दौड़ में शामिल हैं। पूरा ध्यान इसी तरफ है कि अधिक से अधिक पैसा किस तरह कमाया जाये। चलिए कमाने में कोई बुराई भी नहीं है, लेकिन ये क्या कि पैसे कमाने के चक्कर में दूध की जगह यूरिया बेचा जा रहा है, धनिये की जगह घोड़े की लीद, मावे की जगह जहर, सच की जगह झूठ और न जाने क्या क्या। और ये उस देश का हाल है जहाँ नीति का राज था। मंदिर और संतो की शरण में भी अगर कोई जा रहा है तो केवल स्वार्थ से। किसी को अपनी ज़िन्दगी में चमत्कारिक बदलाव देखने की चाह है तो कोई मोटा दान करके इनकम टैक्स से मुक्ति चाहता है। इसके बदले में भी नाम की चाह है।

गोस्वामी जी का इशारा साफ़ है कि दरिद्रता में बड़ा दुःख है, इसलिए दरिद्रता को दूर रखने के उपाय जरूरी हैं। चाहे आर्थिक दरिद्रता हो या मानसिक दरिद्रता या फिर शारीरिक दरिद्रता। कहा जाता है कि जो लोग गरीबी से तंग आकर आत्महत्या कर लेते हैं वे लोग मानसिक रूप से भी गरीब होते हैं। इसलिए हर तरह की दरिद्रता से बचने की जरुरत है। लेकिन गोस्वामी जी अगली पंक्ति में ही साफ़ कर देते हैं कि सुख तो सम्पन्नता में भी नहीं है। दुःख तो वहां भी मिलेगा लेकिन वह दरिद्रता के बराबर बड़ा नहीं होगा। इसलिए पूरा जीवन धन के लिए नहीं अर्पित करना है। जीवन का उद्देश्य धन के लिए खुद को न्योछावर करना नहीं होता। जीवन का उद्देश्य तो बताया गया है धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष। लेकिन इन्सान केवल धन के ही पीछे भगा जा रहा है। अर्थ कमाना है लेकिन धर्म के मार्ग पर चलकर और मोक्ष को लक्ष्य बनाकर कामनाओं की पूर्ती करनी है।

लेकिन पथ भ्रष्ट सा इन्सान दिशा विहीन भागा चला जा रहा है एक अंत हीन दौड़ में। और दिखाने की कोशिश ये कर रहा है कि वह नॉर्मल है, जबकि ऐसा है नहीं। एक नकली चेहरा ओढा हुआ है। फ़िल्मी दुनिया के लोगों का जब भी इंटरव्यू लिया जाता है या जब भी वे सार्वजनिक मंच पर आते हैं तो वे अपनी चल-ढाल से यही दिखने की कोशिश करते हैं कि वे बहुत खुश हैं, जबकि असलियत कुछ और होती है। लोगों को यही सच लगने लगता है और वे भी उसी तरफ दौड़ने लगते हैं। आज का समाज टीवी से सबसे ज्यादा प्रभावित है। वही चाल-ढाल, वही रंग, वही वेश-भूषा सब कुछ वही दिखाने की कोशिश चल रही है। क्योंकि वह दुनिया नकली है तो बदले में नकली ही सुख प्राप्त होता है।

इसलिए सुख और दुःख के सही अर्थ और समझना जरुरी है।

Tuesday, March 16, 2010

नाम पर नहीं अपने काम पर ध्यान दें


राम काज करिबे को आतुर, हनुमान जी को राम काज कि इतनी लगन थी कि उन्होंने कभी अपना ध्यान ही नहीं किया। उनको न नाम की चिंता थी, न आराम की, न किसी मान और सम्मान की चाह। उनके लिए तो बस राम जी का काज होना जरुरी था।

जब भगवन राम का संधि प्रस्ताव लेकर अंगद को रावण के पास जाना पड़ा तब रावण ने अंगद से कहा कि राम की सेना में एक भी ऐसा बलशाली नहीं जो मेरा मुकाबला कर सके। राम खुद पत्नी के वियोग में दुखी है, जामवंत बूढा है, विभीषण तो स्वाभाव से कायर है, सुग्रीव कितना वीर है सब जानते हैं, इनमें से कोई मेरे सामने नहीं ठहरता। लेकिन हाँ एक बन्दर है जो थोडा बलशाली है, जिसने लंका को आग लगे थी। बाकी सब तो बेकार हैं। इस पर अंगद ने रावण के दरबार में अपना पांव जमाकर अपने और राम के बल का एहसास रावण को करा दिया था।

इसके बाद जब अंगद वापस अपने शिविर में आये तो उन्होंने हनुमान जी से यही पुछा कि तुमने पूरी लंका को जला दिया, रावण के मद को चूर कर दिया और वहां अपना नाम तक बता कर नहीं आये। रावण तुम्हारा नाम तक नहीं जानता। इस पर हनुमान जी का जवाब था कि मैं वहां अपना नाम करने गया था या राम जी का काम करने गया था।

हनुमान जी हमें काम के प्रति समर्पण सिखाते हैं। हनुमान जी के भक्त तो बहुत मिल जायेंगे, हर मंगल को लम्बी-लम्बी कतार मंदिरों में दिखती हैं, लेकिन हनुमान जी को सही में फ़ॉलो करने वाले कम ही हैं। आज अधिकांश लोगों को अपने काम से जयादा अपने नाम की चिंता रहती है। चाहे वह अपना नाम हो, अपने प्रोडक्ट का नाम हो या अपनी कंपनी का नाम। बाकायदा ब्रांडिंग के डिपार्टमेंट बनाये गए हैं, जन संपर्क के माध्यम से पत्रकारों को लुभाने की कोशिश की जाती है। लेकिन काम पर उतना ध्यान नहीं है। बस किसी तरह जल्दी से नाम हो जाये, और कमाई बढे।

दरअसल नाम और यश किसी भी काम का बाई-प्रोडक्ट होता है। जब आप निरंतर कीसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मेहनत करते हैं तो उसके रिजल्ट के साथ आपको यश या अपयश मिलता है। जो खुद फैलता है। न तो उसको कोई रोक सकता है और न कोई जबरदस्ती यश प्राप्त कर सकता है। मीडिया और आधुनिक संसाधनों की मदद से अगर आप ने नाम अर्जित कर भी लिया तो वह ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं है। लेकिन फिर भी लोग नाम के चक्कर में लिए बौराए-बौराए घुमते हैं। पत्रकारों के कंधे दबाते फिरते हैं। और इस सब में काम कहीं पीछे छूट जाता है।

ज्वलंत उदाहरण अपने नेता ही हैं। जिनका काम से ज्यादा अपनी छवि और नाम पर ध्यान रहता है। कॉर्पोरेट घरानों में भी अब ये युद्ध छिड़ गया है। इसका सबसे बड़ा नुकसान ये हो रहा है कि किसी भी व्यक्ति या संसथान की सही इमेज लोगों तक नहीं पहुँच पाती है। जब वास्तविकता का पता चलता है तो कहीं ज्यादा अघात पहुचता है। इसलिए नाम से ज्यादा अपने काम पर ध्यान देने की जरूरत है। इसी में व्यक्ति, समाज और देश का भला छिपा है। वैसे भी रामायण कहती है कि- हानि लाभ जीवन मरन यश अपयश विधि हाथ। ये छः चीज़ें विधि के हाथ छोड़कर अपने काम पर ध्यान देंगे तो आधी मुश्किलें खुद दूर हो जाएँगी।