Ramayan Ek Khoj
Wednesday, September 3, 2014
कृष्ण और राम से सीखें जनता के साथ ‘पर्सनल टच’ रखना
Monday, July 4, 2011
अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने में नुकसान ही नुकसान है!!!
बस यहीं से नारद मुनि के अंतःकरण में गर्व के बीज अंकुरित हो गए। उन्हें इस बात का बड़ा अभिमान हुआ कि उन पर कामदेव का भी असर नहीं हुआ और उन्होंने कामदेव को हरा दिया। फिर क्या था उन्होंने सीधे जाकर ये प्रसंग शिव जी को सुना दिया। भोलेनाथ ने वो प्रसंग ध्यान से सुना और मुनि की प्रशंसा की, लेकिन साथ ही उन्होंने नारद को सीख भी दी कि वो ये प्रसंग इस तरह से जाकर विष्णु जी को न सुनाएं।
लेकिन नारद मुनि को लगा कि शायद शिव जी को उनकी सफलता से ईष्र्या हो रही है और उन्होंने शिव जी की बात को नजरंदाज करके उसी अभिमान के साथ पूरा प्रसंग जाकर विष्णु जी को सुना दिया। भगवान अपने भक्त के हृदय में अहंकार नहीं देख सकते थे, सो उन्होंने नारद मुनि का अहंकार भंग करने की ठान ली। उसके बाद उन्होंने विश्वमोहिनी के स्वयंवर के माध्यम से जो नारद जी का अहंकार तोड़ा वो सबको पता है।
आज हम सबकी स्थिति नारद मुनि की भांति ही होकर रह गई है। जरा-जरा सी सफलताएं भी हम से हजम नहीं हो पाती हैं। लगते हैं हम उनका ढोल पीटने। इस प्रचलन के चक्कर में हम अपने बच्चों का सबसे ज्यादा नुकसान करते हैं। बचपन में नर्सरी, केजी में पढ़ रहे बच्चे की जरा सी सफलता का उनकी मम्मियां पड़ोसियों के सामने ऐसा गुणगान करेंगी मानो कोई आॅक्सफोर्ड की प्राप्त कर ली हो। बच्चे की इतनी ज्यादा प्रशंसा उसके लिए आगे चलकर नुकसानदायक साबित होती है। फिर उन्हीं मम्मियों का कथन होता है- बचपन में तो ये पढ़ने में बहुत अच्छा था, पर ज्यों-ज्यों बड़ा होता गया, पता नहीं इसको क्या होता चला गया।
गीता में भगवान कृष्ण का भी यही संदेश है कि कर्म करो, पर उसमें कर्तापन का भाव न हो। कर्म का फल ईश्वर की देन है, न उसका गर्व करना है और न शोक मनाना है। रही बात यश की तो अच्छे कर्मों का यश खुद-ब-खुद फैलता है। उसके लिए किसी अखबार या न्यूज चैनल को प्रेस विज्ञप्ति भेजने की जरूरत नहीं है। आज भारत में तमाम ऐसे सामाजिक संगठन हैं जो कभी अपने कार्यक्रमों में मीडिया को नहीं बुलाते। उनका काम ही उनकी पहचान है। पहचान बनाने के लिए वो मीडिया को बुलाकर प्रेस ब्रीफिंग का रास्ता नहीं चुनते, बल्कि अपना पूरा ध्यान अपने काम पर केंद्रित रखते हैं। फिर क्या मीडिया और क्या सरकार, सब अपने आप उनको पहचानने लगते हैं।
लेकिन आज स्थिति एकदम उल्टी है। पान के खोखे से लेकर सीईओ के आॅफिस तक लोग अपने बारे में डींगें मारते दिखेंगे। मैंने ये किया, वो किया... सबकी बैंड बजा दी... कोई मेरे सामने टिक नहीं सकता... मैं नहीं होता तो उस दिन अनर्थ हो जाता.... वगैराह, वगैराह। हम इतने आत्ममुग्ध हो जाते हैं कि अपनी तरक्की का मार्ग ही बंद कर लेते हैं। हृदय में पल रहा अहंकार इतना बड़ा हो जाता है कि आगे बढ़ने ही नहीं देता। इसलिए सोच समझकर बोलें, अगर नहीं समझ आ रहा है कि कैसे किसी बात की चर्चा की जाए तो चुप रहने में ही भलाई है, क्योंकि मुंह से निकली हर बात के गहरे परिणाम निकलते हैं।
Thursday, March 31, 2011
हनुमान सिखाते हैं टार्गेट अचीव करना!
इस पूरे घटनाक्रम से आज के जीवन में कई चीजें सीखने वाली हैं। जब हम कोई काम अपने हाथ में लेते हैं तो जैसा हनुमान के साथ हुआ वैसा ही हम सबके साथ भी होता है और हम मंजिल तक पहुंचने से पहले ही हिम्मत हार जाते हैं। किसी भी काम को हाथ में लेते वक्त ये बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि रास्ते में व्यवधान आएंगे ही आएंगे। हमें उन व्यवधानों का सामना अपनी बुद्धि और अपने विवेक से करना है।
सबसे पहला व्यवधान है मैनाक पर्वत- यानि हमारा आलस्य। हर कंपनी में दो तरह के कर्मचारी होते हैं। एक वे जो काम को हाथ में लेने के बाद तब तक शांत नहीं बैठते जब तक कि वो पूरा न हो जाए। दूसरे वे जो काम पूरा करने के लिए डेडलाइन का इंतजार करते हैं। पहले किस्म के कर्मचारी अपना काम ज्यादा व्यवस्थित ढंग से पूरा करते हैं जबकि दूसरे किस्म के लोग हबड़धबड़ में काम को पूरा करते हैं। तो हनुमान बता रहे हैं कि काम के प्रति ऐसी लगन होनी चाहिए कि आपको भूख, प्यास और थकान जैसी चीजों का एहसास ही न हो। हनुमान जी ने कब खाने की मांग की जब उन्होंने सीता की दर्शन कर लिए। खुद सीता जी से ही कहा कि माता मुझे अब भूख लग रही है। उसी तरह कुशल टीम लीडर्स अपना काम और अपना टार्गेट पूरा करने के बाद पूरी टीम के साथ सेलिब्रेट करते हैं।
फिर हनुमान के सामने दूसरा व्यवधान आया- सुरसा। उसने हनुमान से उसकी भूख मिटाने को कहा। तब हनुमान ने अपनी चतुराई से सुरसा को जीता। इसी तरह जब आप किसी बडे़ प्रोजेक्ट को हाथ में लेते हो तो कई तरह की सुरसाएं आपसे अपनी रिक्वायरमेंट पूरी करने की डिमांड करती हैं। कहीं आपको लालफीताशाही रोकती है तो कहीं फैमिली की समस्याएं। ऐसे में आपको अपने विवेक का इस्तेमाल करना और कम समय वेस्ट करते हुए उनकी रिक्वायरमेंट को पूरा करना है। विनम्र आचरण बनाए रखते हुए अपना ध्यान अपने मेन टार्गेट पर लगाए रखना है।
इसके बाद हनुमान जी के सामने सिंघिका आई। ंिसंघिका आकाश में उड़ने वाले जीवों की परछाईं को पकड़कर उनको खा लेती थी। वही काम उसने हनुमान के साथ भी किया। इस बार हनुमान ने बिना कोई समय बर्बाद किए उसका वध करना उचित समझा। ये जो सिंघिका है ये आपके आसपास बिखरे अनवांटेड ऐलीमेंट्स हैं। जो आपकी टांग खींचते रहते हैं या आॅफिस में पाॅलिटिक्स करते रहते हैं। तो ऐसे लोगों की तरफ बिल्कुल ध्यान न देते हुए उनकी बात न सुनते हुए उनको पूरी तरह इग्नोर करना है। अगर आप उनके साथ उलझेंगे तो आपका अपना नुकसान होगा, जो वे चाहते हैं।
फिर हनुमान का सामना लंकिनी से हुआ। पहले तो हनुमान ने उससे बचकर निकलने की कोशिश की। लेकिन उसने उन्हें नहीं जाने दिया। तब हनुमान ने एक घूंसा मारकर उसको अपनी शक्ति का एहसास करा दिया। एक घूंसा पड़ते ही उसने आत्मसमर्पण कर दिया और हनुमान को आगे जाने दिया। ऐसे ही जब आप अपने टार्गेट के बहुत पास पहुंचने वाले होते हो तो कुछ बाधाएं खड़ी हो जाती हैं। ऐसा लगता है मानो अब ये काम पूरा नहीं हो पाएगा। लेकिन इन परिस्थितियों में आपको अपनी जिद पर अड़ जाना है और अपनी आत्मशक्ति को जगाकर खुद में पाॅजिटिव एनर्जी जनरेट करनी है। आपके अंदर की जो पाॅजिटिव एप्रोच है वो बहुत जरूरी है किसी टार्गेट को अचीव करने के लिए।
जब हनुमान लंका के अंदर गए तो सीता को खोज नहीं पाए। तब उनको विभीषण का घर दिखा। उसके आसपास के वातावरण से उन्होंने अंदाजा लगाया कि ये व्यक्ति सज्जन है। इससे मित्रता करनी चाहिए। ये जरूर मेरी मदद करेगा। फिर वही हुआ जैसा हनुमान ने सोचा था। विभीषण ने उनको सीता का सही पता बताया। बदले में हनुमान ने उन्हें राम जी से मिलवाने का आश्वासन दिया। इसी तरह जब हम किसी बड़े काम को हाथ में लेकर आगे बढ़ते हैं, तो हमारे आसपास कई अच्छे और अनुभवी लोग भी होते हैं। लेकिन हम अपनी ईगो के चलते उनकी मदद लेना उचित नहीं समझते। हमें ऐसे लोगों को पहचानकर उनकी मदद लेनी चाहिए। इससे हमारी मंजिल हमको जल्दी मिल सकती है। वरना काफी समय बर्बाद होगा। लेकिन ये रिश्ता एकदम क्षणिक और स्वार्थ आधारित नहीं होना चाहिए। हमें ऐसे लोगों से लांग टर्म रिलेशन बनाने चाहिए। उनको भी कभी मदद की जरूरत पड़े तो हमें भी उनकी मदद करनी चाहिए। जैसे बाद में हनुमान ने विभीषण को राम से मिलवाने में मदद की।
Friday, December 10, 2010
मठाधीश होने के मायने!
राजा राम ने उससे पूछा कि उसकी ये हालत किसने की है तो उसने बताया कि- नगर में सर्वार्थसिद्ध नमक एक विद्वान भिक्षु है तो ब्राह्मणों के घर में रहता है उसने अकारण ही मुझ पर प्रहार किया है. मैंने उसका कोई अपराध नहीं किया था. राजन आप मुझे न्याय दें.
कुत्ते की बात सुनकर राजा राम ने एक द्वारपाल को भेजकर सर्वार्थसिद्ध नाम के उस भिक्षु को बुलवा लिया. राजा राम ने उस भिक्षु से पूछा कि- तुमने अकारण ही इस कुत्ते पर क्यों प्रहार किया. तब उस भिक्षु ने जवाब दिया कि महाराज मेरा मन क्रोध से भर गया था इसलिए मैंने इसे डंडे से मारा. भिक्षा का समय बीट चुका था तब भी भूखा होने के कारण मैं भिक्षा के लिए दर दर घूम रहा था. ये कुत्ता बीच रस्ते में खड़ा था. मैंने बार बार कहा कि मेरे रस्ते से हट जाओ, लेकिन ये अपनी ही चाल में मस्त चला जा रहा था. भूख के कारण क्रोध आ गया और मैंने इस पर प्रहार कर दिया. मैं अपराधी हूँ आप मुझे दंड दीजिये. राजा से दंड पाकर मेरा पाप नष्ट हो जायेगा.
तब राजा राम ने अपने सभासदों से पूछा कि इस भिक्षु को क्या दंड दिया जाए क्योंकि दंड का सही प्रयोग करने पर ही प्रजा सुरक्षित है. राम की राजसभा में उस समय बहुत से विद्वान मौजूद थे उन सभी ने मंथन करने के बाद राजा से कहा कि- महाराज ब्राह्मण दंड द्वारा अवध्य है. उसको शारीरिक दंड नहीं मिलना चाहिए, यही शास्त्रों का मत है. लेकिन राजा सबका शासक होता है.
उन सबकी ऐसी मंत्रणा सुनकर उस कुत्ते ने कहा कि महाराज आपने प्रतिज्ञापूर्वक मुझे न्याय देने की बात कि है. अगर आप मुझ से संतुष्ट हैं और मेरी इच्छानुसार वर देना चाहते हैं तो मेरी बात सुनिए. आप इस ब्राह्मण को मठाधीश बना दीजिये. इसको कालंजर में एक मठ का आधिपत्य प्रदान कर दीजिये.
राजा राम ने तुरंत उस ब्राह्मण को मठाधीश घोषित कर दिया. इस प्रकार वह ब्राह्मण बहुत खुश हुआ और हाथी की पीठ पर बैठाकर उसको वहां से विदा किया गया.
तब राजा राम के मंत्रियों ने मुस्कुराते हुए पूछा कि महाराज ये दंड था या पुरस्कार. इसपर राजा राम ने कहा कि कर्मों की गति बड़ी गहरी और न्यारी है, किस कर्म का क्या नतीजा भोगना पड़ता है इसका तुमको नहीं पता ये इस कुत्ते को पता है. फिर श्री राम की पूछने पर उस कुत्ते ने पूरी सभा के समक्ष बताया- जघुनंदन मैं पिछले जन्म में कालंजर के मठ में मठाधीश था और धर्मानुकूल आचरण करता था. मुझे ज्ञात नहीं मैंने पड़ पर रहते हुए कोई धर्म के प्रतिकूल कर्म किया हो. लेकिन फिर भी मुझे ये घोर अवस्था और अधम गति मिली. तो सोचिये ये ब्राह्मण जो इतना क्रोधी है, धर्म छोड़ चुका है, दूसरों का अहित करता है, क्रूर, कठोर, मूर्ख और अधर्मी है, ये तो अपने साथ ऊपर और नीचे की सात पीढ़ियों को भी नर्क में गिरा देगा."
ये प्रसंग अचानक मुझे वाल्मीकि रामायण में मिल गया. मुझे लगा कि इसको लिखना बहुत जरूरी है. आज जहाँ देखो मठाधीशों का बोलबाला है. तमाम संस्थाओं के मुखिया बने बैठे लोग एक तरह से मठाधीश ही तो हैं. पत्रकारिता में तो ये शब्द खासतौर से विद्यमान है. महर्षि वाल्मीकि ने इस प्रसंग के माध्यम से बहुत सरल तरीके से समझा दिया है कि मठाधीश होने के क्या मायने होते हैं. जो लोग छोटी-छोटी संस्थाओं के प्रमुख होने के नाते बड़े-बड़े अहंकार पाले बैठे हैं उनके लिए इस प्रसंग में कई सन्देश छिपे हैं. पत्रकारिता के मठाधीशों को तो कम से कम समझ ही लेना चाहिए कि उनका भविष्य कैसा हो सकता है. सदग्रंथ हमें बड़े सहज तरीके से जीवनोपयोगी सूत्र बता देते हैं लेकिन हम हैं कि उनकी तरफ ध्यान ही नहीं देते. इस झूठी चमक-दमक से अगर बाहर निकलें तो शायद हमें जीवन की सच्चाइयाँ खुद-ब-खुद समझ आ जाएँ.
Sunday, October 3, 2010
हम अपने पिता का कहना नहीं मानते!
यहां संक्षेप में ये भी बताते चलें कि जिस राम राज्य की बात गांधी से लेकर आज तक के नेता करते आए हैं, आखिर उसमें ऐसा क्या था कि हम आज भी वैसे शासन की इच्छा रखते हैं। संदर्भ के लिए अगर केवल तुलसी की रामचरितमानस को ही लें तो हम पाएंगे कि राम के शासन में किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं था। न तो कोई किसी से बैर रखता था और न किसी तरह का भेदभाव था। सभी को समान अधिकार प्राप्त थे। सब अपने-अपने धर्म (कर्तव्यों) का भली-भांति पालन करते थे। न वहां भय था न कोई रोग और न शोक. न तो शारीरिक कष्ट थे और न सांसारिक, प्राकृतिक आपदाएं भी नहीं आती थीं। समय से बारिश होती थी और पशु-पक्षी स्वच्छंद रूप से विहार करते थे। यानि प्रकृति एकदम संतुलित थी। सभी नागरिक ज्ञानी, चरित्रवान और परोपकारी थे। यानि शिक्षा व्यवस्था बेहद उच्च स्तर की थी। सबसे बड़ी बात जो कही वो ये कि अल्पमृत्यु भी नहीं थी। सुनने में ये सब शायद एक सपनों की दुनिया लगे, लेकिन जरा सोच कर देखें कि उस शासन का कैसा सिस्टम रहा होगा? अगर आज की जुबान में कहें तो एकदम फूलप्रूफ सिस्टम।
इसके उलट जरा आज के भारत पर नजर डालते हैं। आजादी से लेकर आज तक भारत सरकार के सामने समस्याओं का अटंबार लगता जा रहा है, लेकिन किसी भी समस्या का कोई ठोस निराकरण नहीं निकल पा रहा। प्राकृतिक आपदाएं हों, अंदरूनी समस्याएं या फिर बाहरी खतरे हर मोर्चे पर हम ढुलमुल खड़े हैं। न तो हम अपने लोगों की बीमारियों से रक्षा कर पा रहे हैं और न तरह-तरह के आतंकवादियों से। कश्मीर से लेकर आसाम तक, आतंकवाद से लेकर नक्सलवाद तक हम हर समस्या के सामने घुटने टेक कर खड़े हैं। हम कोई समाधान नहीं निकाल पा रहे, न तो शक्ति के बल पर और न प्रीति के बल पर। ऊपर से तुर्रा ये कि हम विकास कर रहे हैं, विश्व में एक शक्ति के रूप में उभर रहे हैं। आर्थिक विकास का छद्म चश्मा उतार कर देखें तो दिखेगा कि हम एक मुगालते में जी रहे हैं। ये एकदम २००४ के इंडिया शाइनिंग के माफिक है।
राष्ट्र निर्माण करते-करते हम चरित्र निर्माण करना भूल गए। आज हमने नेशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर तो खड़ा कर लिया है लेकिन देश के पास नेशनल कैरेक्टर नहीं बचा। ये नेशनल कैरेक्टर की ही कमी है कि तमाम योजनाओं में करोड़ों बहाने के बावजूद उसका लाभ आम लोगों तक नहीं पहुंच पाता। ये नेशनल कैरेक्टर की ही कमी है कि आज कॉमनवेल्थ खेलों में ७० हजार करोड का खजाने खोलने के बावजूद हमारे पांव थर-थर कांप रहे हैं और देश की इज्जत दाव पर है। इस सबकी जड में कहीं न कहीं हमारे एजुकेशन सिस्टम का ही दोष है। जिन बालकों के संग खेलते वक्त पंडित नेहरू उन्हें देश का भविष्य कहकर पुकारते थे, उन बालकों को हम अच्छा नागरिक बनने की दिशा ठीक से नहीं दे पाए। अब वही बालक विभिन्न पदों पर बैठे देश का बंटाधार कर रहे हैं।
गांधी ने अपने राम राज्य का खाका सत्य और अहिंसा की नींव पर खड़ा किया था। वो चाहते कि विकास की बयार गांव से शहर की ओर बहे। बेहूदे विकास के नाम पर पर्यावरण के साथ खिलवाड न किया जाए। नागरिक तप और त्याग का जीवन जिएं। ऐसी अर्थव्यवस्था हो जो सबका पेट भर सके। लेकिन हुआ क्या? सत्ता मिलते ही गांधी के विचार को दरकिनार कर दिया गया और विकास का पश्चिमी मॉडल अपनाया गया। विकास शहरों से शुरू किया गया और गांव पिछडते चले गए, जिसका परिणाम निकला पलायन। स्थिति ये बन गई कि बार-बार दिल्ली की मुखयमंत्री को कहना पड़ा कि दिल्ली अब और लोगों को जगह नहीं दे सकती, कृपया दूसरे राज्यों से लोग यहां आकर न बसें।
हम अपनी नदियों, पहाड़ों और जंगलों को नहीं बचा पा रहे। गंगा-यमुना को साफ करने के नाम पर बार-बार प्रोजेक्ट लांच कर खानापूर्ति की गई लेकिन उनको गंदा करने वाली इंडस्ट्रीज के मालिकों से चुनावी फंड पाने के लिए राजनीतिज्ञ गलबहियां करते रहे। बाजारवाद और भोगवाद इतनी गहराई तक फैल गया कि तप और त्याग की बातें बेहद दकियानूसी लगीं। प्रकृति के साथ तो हमने ऐसा घिनौना बर्ताव किया कि हम उसको अपनी दासी मान बैठे हैं। हालांकि प्रकृति बार-बार अपनी ताकत का ऐहसास कराकर चेताने की कोशिश भी करती है, लेकिन हम उसके इशारे को नहीं समझ पाते। इस साल के मॉनसून ने समूचे उत्तर भारत को पानी पिला दिया। कॉमनवेल्थ की आयोजन कमेटी को तो ये मॉनसून खासतौर से याद रहेगा। खैर, जीव जंतुओं और पर्यावरण की रक्षा तो हम बाद में करेंगे, पहले तो हमारे नागरिक ही देश की सीमाओं में सुरक्षित नहीं हैं। हमको कोई भी, कभी भी, कहीं भी मार जाता है और सरकार के पास बयानों के मलहम के सिवा कुछ नहीं होता। शायद इसीलिए अब ये जुमला आम हो चला है कि भारत राम भरोसे चल रहा है।
जहां तक बात अल्पमृत्यु की है तो आज भारत में वह भी चर्म पर है। अल्पमृत्यु का सबसे बड़ा कारण बन रहे हैं तमाम तरह के हादसे और जानलेवा बीमारियां। हमने आज तक लड़े गए युद्धों में इतनी जानें नहीं गंवाई जितने नागरिक हमने देश की सडकों पर गंवा दिए। हमने ऐसी-ऐसी कारों को अपनी सडकों पर दौडने की इजाजत दे दी जिनके लिए भारतीय सडकें बिल्कुल अनुकूल नहीं हैं। हाईवे पर अधिकतम गति सीमा ६० किमी प्रति घंटा की है लेकिन गाडियों के अंदर २०० किमी प्रति घंटे तक का प्रावधान है। हाई स्पीड पर गाड़ी चलाने पर हम चालक का तो चालान काटते हैं, लेकिन गाड़ी में हाई स्पीड का प्रावधान देने वाली कंपनी के प्रति हमारा रवैया क्या होना चाहिए? वैसे इसपर कोई यह भी सवाल उठा सकता है कि देश का नागरिक कम उम्र में मरता है या उम्र पूरी करके, इसमें शासन की भूमिका कहां पर है। दरअसल यहीं पर राम राज्य का अंतर छिपा है। हम भारत पर भारतीयता की दृष्टि से शासन करने के बजाय एक विदेशी चश्मा लगाकर राज कर रहे हैं। गांधी के स्वदेशी मंत्र में केवल विदेशी चीज़ों की होली जलाना भर नहीं था, उनके 'स्वदेशी अपनाओ' में गहरा दर्शन छिपा था।
१९४७ से लेकर आज तक भारत में भ्रष्टाचार का बोलबाला रहा। पिछले ६३ सालों से हम अलग-अलग सुरों में देश के अंदर व्याप्त भ्रष्टाचार का रोना रो रहे हैं। लेकिन आज तक उसका खात्मा करने की दिशा में सिवाय असफलता के कुछ नहीं मिला। सर्वोच्च स्थानों से लेकर निचले तबके तक निजी हितों ने राष्ट्र हितों के ऊपर वरीयता प्राप्त कर ली है। उपभोक्तावाद ऐसा बढ़ा है कि हम अब केवल मुनाफे की भाषा बोलते और समझते हैं। बिना फायदे के तो अब हम ईश्वर को भी नहीं पूजते। राष्ट्रपिता ने तो बताया तप और त्याग का जीवन लेकिन राष्ट्र को दिया गया भोग और विलास का जीवन। धन और संपदा का लोभ इतना सिर चढ़ा कि जो धन राष्ट्र के विकास में लगना चाहिए था वह स्विस बैंकों में पड़ा सड़ रहा है। देश का शासक स्वयं देश के लिए घुन बन गया और लगातार उसको खोखला कर रहा है।
राम राज्य में दंड का भी प्रावधान था, लेकिन प्रजा इतनी अनुशासित थी कि दंड देने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। पर राजा राम ने बार-बार इस बात पर बल दिया कि अगर उचित समय पर उचित दंड दे दिया जाए तो बाकी प्रजा में उसका गहरा असर होता है। लेकिन आजाद भारत में न्यायिक प्रक्रिया किस तरह काम करती है ये बताने की आवश्यकता नहीं। देश की अस्मिता पर हमला करने वाले आतंकवादियों को सजा सुनाई गई, लेकिन उसको अमलीजामा पहनाने में सरकार के हाथ कांप रहे हैं। ऐसे में आम लोगों का देश के कानून में विश्वास कैसे दृढ बने। इसीलिए लोग कानून तोडने से भी नहीं डरते।
राजा राम का एक और विशेष गुण था। चक्रवर्ती सम्राट होने के बावजूद वे स्वयं अयोध्या के लोगों के बीच जाकर उनकी समस्याओं का आकलन करते थे। लेकिन आज के शासक ने आम लोगों से बहुत बड़ी दूरी बना ली है। राजा राम के दरबार में हर रोज कार्यार्थियों के काम और शिकायतें सुनने का प्रावधान था। वे लक्ष्मण को द्वार पर देखने को भेजते कि कहीं कोई अपना काम लेकर तो नहीं आया। लेकिन लक्ष्मण को द्वार पर कभी कोई नहीं मिलता। इसका अर्थ ये नहीं कि लोगों को बोलने का अधिकार नहीं था। राजा राम के शासन में प्रजा की राय सर्वोपरि थी, जिसके कारण राम को सीता का भी परित्याग करना पड़ा। द्वार पर कोई फरियादी न होने का अर्थ है कि निचले पदों पर बैठे राजा राम के प्रशासक बखूबी अपने काम को निभा रहे थे। आज उसका उल्टा है। जिला स्तर पर देखें तो डीएम और एसएसपी के ऑफिस में सुबह से ही शिकायत लेकर आए लोगों का जमावड़ा लग जाता है। इसका सीधा सा अर्थ यही है कि डीएम् एसएसपी से नीचे बैठे कर्मचारी अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन नहीं कर रहे।
इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर साइंटिफिक स्प्रिचुअलिज्म के संयोजक डॉ. गोपाल शास्त्री से जब मैंने राम राज्य के बाबत पूछा तो उनका कहना था कि राम राज्य तब आया जब अयोध्या के लोगों ने १४ वर्ष तक राम के इंतजार में कठिन तप किया। सभी अयोध्यावासियों ने कठोर तप करके राम के प्रति अपना समर्पण प्रदर्शित किया। उस १४ वर्ष के तप और त्याग ने अयोध्यावासियों को हर दृष्टि से एक श्रेष्ठ इंसान बनाया। जबकि उधर स्वयं राम वनवास में और अयोध्या के कार्यवाहक राजा भरत नंदिग्राम में तपस्वी का जीवन व्यतीत कर रहे थे। जब राजा और प्रजा दोनों ने १४ वर्ष तक कठोर तप और त्याग के जीवन का अनुसरण किया तो अयोध्या में राम राज्य की स्थापना हुई। एक ऐसा राज्य जो राम के पिता दशरथ के शासन से भी श्रेष्ठ सिद्ध हुआ और एक मिसाल बन गया। आज तक लोग उस शासन का सपना देख रहे हैं।
हमने महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा तो दे दिया। लेकिन तप और त्याग के जीवन का जो उदाहरण गांधी ने पेश किया उसको न तो देश के शासक ने अपनाया, न प्रशासक ने और न आम लोगों ने। हमने अपने बीच से एक श्रेष्ठ पुरुष को चुन लिया और अखिल विश्व को दिखाने के लिए उसको राष्ट्रपिता का दर्जा दे दिया, लेकिन हम अपने राष्ट्रपिता की वे संतानें हैं जो अपने पिता का कहना मानने को तैयार नहीं।
Saturday, March 20, 2010
सुख-दुःख की पहचान जरुरी है
Tuesday, March 16, 2010
नाम पर नहीं अपने काम पर ध्यान दें
राम काज करिबे को आतुर, हनुमान जी को राम काज कि इतनी लगन थी कि उन्होंने कभी अपना ध्यान ही नहीं किया। उनको न नाम की चिंता थी, न आराम की, न किसी मान और सम्मान की चाह। उनके लिए तो बस राम जी का काज होना जरुरी था।
जब भगवन राम का संधि प्रस्ताव लेकर अंगद को रावण के पास जाना पड़ा तब रावण ने अंगद से कहा कि राम की सेना में एक भी ऐसा बलशाली नहीं जो मेरा मुकाबला कर सके। राम खुद पत्नी के वियोग में दुखी है, जामवंत बूढा है, विभीषण तो स्वाभाव से कायर है, सुग्रीव कितना वीर है सब जानते हैं, इनमें से कोई मेरे सामने नहीं ठहरता। लेकिन हाँ एक बन्दर है जो थोडा बलशाली है, जिसने लंका को आग लगे थी। बाकी सब तो बेकार हैं। इस पर अंगद ने रावण के दरबार में अपना पांव जमाकर अपने और राम के बल का एहसास रावण को करा दिया था।
इसके बाद जब अंगद वापस अपने शिविर में आये तो उन्होंने हनुमान जी से यही पुछा कि तुमने पूरी लंका को जला दिया, रावण के मद को चूर कर दिया और वहां अपना नाम तक बता कर नहीं आये। रावण तुम्हारा नाम तक नहीं जानता। इस पर हनुमान जी का जवाब था कि मैं वहां अपना नाम करने गया था या राम जी का काम करने गया था।
हनुमान जी हमें काम के प्रति समर्पण सिखाते हैं। हनुमान जी के भक्त तो बहुत मिल जायेंगे, हर मंगल को लम्बी-लम्बी कतार मंदिरों में दिखती हैं, लेकिन हनुमान जी को सही में फ़ॉलो करने वाले कम ही हैं। आज अधिकांश लोगों को अपने काम से जयादा अपने नाम की चिंता रहती है। चाहे वह अपना नाम हो, अपने प्रोडक्ट का नाम हो या अपनी कंपनी का नाम। बाकायदा ब्रांडिंग के डिपार्टमेंट बनाये गए हैं, जन संपर्क के माध्यम से पत्रकारों को लुभाने की कोशिश की जाती है। लेकिन काम पर उतना ध्यान नहीं है। बस किसी तरह जल्दी से नाम हो जाये, और कमाई बढे।
दरअसल नाम और यश किसी भी काम का बाई-प्रोडक्ट होता है। जब आप निरंतर कीसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मेहनत करते हैं तो उसके रिजल्ट के साथ आपको यश या अपयश मिलता है। जो खुद फैलता है। न तो उसको कोई रोक सकता है और न कोई जबरदस्ती यश प्राप्त कर सकता है। मीडिया और आधुनिक संसाधनों की मदद से अगर आप ने नाम अर्जित कर भी लिया तो वह ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं है। लेकिन फिर भी लोग नाम के चक्कर में लिए बौराए-बौराए घुमते हैं। पत्रकारों के कंधे दबाते फिरते हैं। और इस सब में काम कहीं पीछे छूट जाता है।
ज्वलंत उदाहरण अपने नेता ही हैं। जिनका काम से ज्यादा अपनी छवि और नाम पर ध्यान रहता है। कॉर्पोरेट घरानों में भी अब ये युद्ध छिड़ गया है। इसका सबसे बड़ा नुकसान ये हो रहा है कि किसी भी व्यक्ति या संसथान की सही इमेज लोगों तक नहीं पहुँच पाती है। जब वास्तविकता का पता चलता है तो कहीं ज्यादा अघात पहुचता है। इसलिए नाम से ज्यादा अपने काम पर ध्यान देने की जरूरत है। इसी में व्यक्ति, समाज और देश का भला छिपा है। वैसे भी रामायण कहती है कि- हानि लाभ जीवन मरन यश अपयश विधि हाथ। ये छः चीज़ें विधि के हाथ छोड़कर अपने काम पर ध्यान देंगे तो आधी मुश्किलें खुद दूर हो जाएँगी।
Friday, January 29, 2010
आशा का दूसरा नाम है त्रिजटा
माता सीता का पूरा जीवन विपत्तियों से भरा रहा। इनमें सबसे बड़ी विपत्ति थी रावण द्वारा सीता का अपहरण। सीता जैसी पतिव्रता स्त्री के लिए राक्षस नगरी लंका में एक पल काटना भी मुश्किल था। लेकिन फिर भी उन्होंने श्री राम के इंतजार में वहां समय बिताया। आखिर कैसे। जिस स्त्री का पति के वियोग में एक पल भी जीना मुश्किल हो उसके लिए इतना समय बिताना कैसे संभव हो गया। अगर थोड़ा सा ध्यान दें तो हमें इसका जवाब मिल जायेगा। ये संभव हो सका त्रिजटा के संग की वजह से। घोर राक्षस नगरी में भी सीता को हिम्मत बंधाने के लिए त्रिजटा मिल गई। सीता ने शायद ही ऐसी कल्पना की होगी कि लंका में उसको कोई ऐसा स्नेही भी मिल सकता है। सीता ने निराश होकर बार-बार खुद को खत्म करने का विचार किया, लेकिन त्रिजटा ने हमेशा सीता के मन में उम्मीदों के दीप जलाए। उसने हमेशा यही कहा कि राम आएंगे और तुमको लेकर जाएंगे। ये त्रिजटा का ढांढस ही था, जिसने सीता को कभी हिम्मत नहीं हारने दी। सीता को त्रिजटा से इतनी आत्मीयता हो गई कि उसके साथ माता और पुत्री का रिश्ता स्थापित कर लिया और कहा कि 'मातु विपति संगिनी तैं मोरी', हे माता तुम इस विपत्ति काल में मेरी संगिनी हो।
ऐसा केवल सीता के साथ ही नहीं हुआ। हर किसी के जीवन में जब विपत्ति काल आता है तो ईश्वर कोई न कोई साधन ऐसा जरूर दे देते हैं जो हमारी हिम्मत को टूटने नहीं देते। हमें केवल ऐसे लोगों को पहचानने की आवश्यकता है। बुरे वक्त में हमें ऐसे लोगों का संग ज्यादा करना चाहिए। निराश करने वालों की बातों पर तो कतई ध्यान नहीं देना चाहिए। रावण ने सीता को बार-बार निराश करने की कोशिश की, लेकिन सीता ने न उसकी बात सुनी और न उसकी ओर देखा। बुरे वक्त में ऐसा हर किसी के साथ होता है। एक ओर ऐसे लोग मिलेंगे जो आपको तरह-तरह से निराश करने की कोशिश करेंगे, आपका मनोबल तोड़ेंगे और आपका मजाक भी उड़ाएंगे, लेकिन बुरे वक्त का ख्याल करके ऐसे लोगों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। हमें ऐसे लोगों के साथ बैठना चाहिए जो हमारी उम्मीद को जगाने वाले हैं। हमें अपने लिए त्रिजटा की तलाश करनी चाहिए। ये त्रिजटा आपको अपने माता-पिता, अपने भाई-बहन या अपने दोस्तों के रूप में आसानी से मिल जाएगी। बस जरूरत थोड़ा सा ध्यान देने की है। क्योंकि हम अपने करीबियों को उतना महत्व नहीं देते इसलिए उनसे विचार-विमर्श करने में सकुचाते हैं। जबकि ऐसा नहीं करना चाहिए।
किसी कारणवश अगर हम अपने नजदीकी लोगों से दूर हैं। परदेस में या फिर दूसरे शहर में तब भी बुरे वक्त में आपको त्रिजटा जरूर मिलेगी, जिस तरह सीता को मिली। क्या सीता ने सोचा होगा कि दुश्मन देश में भी उनको दर्द बांटने वाले मिल जाएंगे। लेकिन ईश्वर ऐसा कभी नहीं करते। बुरा वक्त परीक्षा के लिए आता है और ईश्वर आपका मनोबल बनाए रखने के लिए त्रिजटा को भी जरूर भेजते हैं। चाहे आप किसी भी पेशे में हों, खराब समय का सामना कभी भी किसी को भी करना पड़ सकता है। ऐसे में केवल अपने आस-पास विचरने वाली त्रिजटाओं को पहचानो और उनका संग करो। ऐसे जन न तो आपको निराश होने देंगे और न आपको कभी कोई घातक कदम उठाने देंगे।
आज समाज में अगर डिप्रेशन और आत्महत्याओं के केस इतने ज्यादा बढ़ रहे हैं तो उनका एक मात्र कारण यही है कि इंसान सबकुछ अकेले झेलने पर आमादा है। न तो खुद किसी का दर्द बांटता है और न अपना दर्द किसी से कहता है। ये सही है कि हर किसी से अपने दिल की व्यथा नहीं कहनी चाहिए, लेकिन ईश्वर ने इतनी समझ सबको दी है कि वह अपने हितैषियों की पहचान कर सके। एक बार ऐसे लोगों की पहचान कर लें और फिर अपने दर्द को उनके साथ बांटें और उनके दर्द में भी भागीदार बनें। इससे आप जीवन की कठिनाइयों से आसानी से पार पा सकते हैं। लेकिन अगर आप खुद को अपने तक समेटते चले जाएंगे तो आप बुरे वक्त में बेहद अकेला महसूस करेंगे। जीवन व्यर्थ लगने लगेगा और आपका मन घातक कदम उठाने की राय भी दे सकता है।
इसलिए त्रिजटा को हमेशा अपने आसपास रखो। त्रिजटा उस उम्मीद का नाम है जो कभी आपको गिरने नहीं देती। कठिन से कठिन समय में भी हमेशा आपको आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा देती है। ये त्रिजटा आपके मन में भी हो सकती है और आपके आसपास भी, ये जहां भी हो इसे पहचानो और इसके साथ समय बिताओ।