जब भी हम कोई अच्छा या उल्लेखनीय काम करते हैं, तो हमारे मन में कहीं न कहीं उसको लेकर गर्व की भावना आ जाती है। फिर हम ये कोशिश करते हैं कि उसकी चर्चा अधिक से अधिक लोगों से की जाए, ताकि हमारा नाम हो। अपने अंदर की जो कमियां हैं उनकी चर्चा हम किसी से नहीं करते, लेकिन जैसे ही कोई उपलब्धि हासिल की, तो लगते हैं अपना गुणगान करने। ऐसा ही नारद जी ने भी किया। रामचरितमानस का नारद मोह प्रसंग आज-कल के समाज पर एकदम खरा उतरता है। हिमालय की कंदराओं से गुजरते हुए नारद मुनि को जब एक मनोरम स्थान दिखाई दिया तो स्वभाव और शाप के कारण चलायमान नारद मुनि वहां ठहर गए। ठहरे भी ऐसे कि समाधि लग गई। जैसा कि इंद्र का स्वभाव रहा है, देवराज इंद्र को उनकी वो दशा देखकर बेहद घबराहट हुई और उनको अपना सिंहासन खतरे में दिखाई देने लगा। उन्होंने नारद मुनि की समाधि भंग करने के लिए कामदेव और इंद्र लोक की कुछ निपुण अप्सराओं को भेजा। लेकिन नारद मुनि पर उनकी कोई काम कला नहीं चली। वे अविचल अपनी समाधि में बैठे रहे। हारकर कामदेव ने उनसे क्षमा मांगी और वहां से चला गया। नारद मुनि ने बिना कोई क्रोध किए उसको क्षमा कर दिया।
बस यहीं से नारद मुनि के अंतःकरण में गर्व के बीज अंकुरित हो गए। उन्हें इस बात का बड़ा अभिमान हुआ कि उन पर कामदेव का भी असर नहीं हुआ और उन्होंने कामदेव को हरा दिया। फिर क्या था उन्होंने सीधे जाकर ये प्रसंग शिव जी को सुना दिया। भोलेनाथ ने वो प्रसंग ध्यान से सुना और मुनि की प्रशंसा की, लेकिन साथ ही उन्होंने नारद को सीख भी दी कि वो ये प्रसंग इस तरह से जाकर विष्णु जी को न सुनाएं।
लेकिन नारद मुनि को लगा कि शायद शिव जी को उनकी सफलता से ईष्र्या हो रही है और उन्होंने शिव जी की बात को नजरंदाज करके उसी अभिमान के साथ पूरा प्रसंग जाकर विष्णु जी को सुना दिया। भगवान अपने भक्त के हृदय में अहंकार नहीं देख सकते थे, सो उन्होंने नारद मुनि का अहंकार भंग करने की ठान ली। उसके बाद उन्होंने विश्वमोहिनी के स्वयंवर के माध्यम से जो नारद जी का अहंकार तोड़ा वो सबको पता है।
आज हम सबकी स्थिति नारद मुनि की भांति ही होकर रह गई है। जरा-जरा सी सफलताएं भी हम से हजम नहीं हो पाती हैं। लगते हैं हम उनका ढोल पीटने। इस प्रचलन के चक्कर में हम अपने बच्चों का सबसे ज्यादा नुकसान करते हैं। बचपन में नर्सरी, केजी में पढ़ रहे बच्चे की जरा सी सफलता का उनकी मम्मियां पड़ोसियों के सामने ऐसा गुणगान करेंगी मानो कोई आॅक्सफोर्ड की प्राप्त कर ली हो। बच्चे की इतनी ज्यादा प्रशंसा उसके लिए आगे चलकर नुकसानदायक साबित होती है। फिर उन्हीं मम्मियों का कथन होता है- बचपन में तो ये पढ़ने में बहुत अच्छा था, पर ज्यों-ज्यों बड़ा होता गया, पता नहीं इसको क्या होता चला गया।
गीता में भगवान कृष्ण का भी यही संदेश है कि कर्म करो, पर उसमें कर्तापन का भाव न हो। कर्म का फल ईश्वर की देन है, न उसका गर्व करना है और न शोक मनाना है। रही बात यश की तो अच्छे कर्मों का यश खुद-ब-खुद फैलता है। उसके लिए किसी अखबार या न्यूज चैनल को प्रेस विज्ञप्ति भेजने की जरूरत नहीं है। आज भारत में तमाम ऐसे सामाजिक संगठन हैं जो कभी अपने कार्यक्रमों में मीडिया को नहीं बुलाते। उनका काम ही उनकी पहचान है। पहचान बनाने के लिए वो मीडिया को बुलाकर प्रेस ब्रीफिंग का रास्ता नहीं चुनते, बल्कि अपना पूरा ध्यान अपने काम पर केंद्रित रखते हैं। फिर क्या मीडिया और क्या सरकार, सब अपने आप उनको पहचानने लगते हैं।
लेकिन आज स्थिति एकदम उल्टी है। पान के खोखे से लेकर सीईओ के आॅफिस तक लोग अपने बारे में डींगें मारते दिखेंगे। मैंने ये किया, वो किया... सबकी बैंड बजा दी... कोई मेरे सामने टिक नहीं सकता... मैं नहीं होता तो उस दिन अनर्थ हो जाता.... वगैराह, वगैराह। हम इतने आत्ममुग्ध हो जाते हैं कि अपनी तरक्की का मार्ग ही बंद कर लेते हैं। हृदय में पल रहा अहंकार इतना बड़ा हो जाता है कि आगे बढ़ने ही नहीं देता। इसलिए सोच समझकर बोलें, अगर नहीं समझ आ रहा है कि कैसे किसी बात की चर्चा की जाए तो चुप रहने में ही भलाई है, क्योंकि मुंह से निकली हर बात के गहरे परिणाम निकलते हैं।
बस यहीं से नारद मुनि के अंतःकरण में गर्व के बीज अंकुरित हो गए। उन्हें इस बात का बड़ा अभिमान हुआ कि उन पर कामदेव का भी असर नहीं हुआ और उन्होंने कामदेव को हरा दिया। फिर क्या था उन्होंने सीधे जाकर ये प्रसंग शिव जी को सुना दिया। भोलेनाथ ने वो प्रसंग ध्यान से सुना और मुनि की प्रशंसा की, लेकिन साथ ही उन्होंने नारद को सीख भी दी कि वो ये प्रसंग इस तरह से जाकर विष्णु जी को न सुनाएं।
बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही।।
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूंँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ।।
लेकिन नारद मुनि को लगा कि शायद शिव जी को उनकी सफलता से ईष्र्या हो रही है और उन्होंने शिव जी की बात को नजरंदाज करके उसी अभिमान के साथ पूरा प्रसंग जाकर विष्णु जी को सुना दिया। भगवान अपने भक्त के हृदय में अहंकार नहीं देख सकते थे, सो उन्होंने नारद मुनि का अहंकार भंग करने की ठान ली। उसके बाद उन्होंने विश्वमोहिनी के स्वयंवर के माध्यम से जो नारद जी का अहंकार तोड़ा वो सबको पता है।
आज हम सबकी स्थिति नारद मुनि की भांति ही होकर रह गई है। जरा-जरा सी सफलताएं भी हम से हजम नहीं हो पाती हैं। लगते हैं हम उनका ढोल पीटने। इस प्रचलन के चक्कर में हम अपने बच्चों का सबसे ज्यादा नुकसान करते हैं। बचपन में नर्सरी, केजी में पढ़ रहे बच्चे की जरा सी सफलता का उनकी मम्मियां पड़ोसियों के सामने ऐसा गुणगान करेंगी मानो कोई आॅक्सफोर्ड की प्राप्त कर ली हो। बच्चे की इतनी ज्यादा प्रशंसा उसके लिए आगे चलकर नुकसानदायक साबित होती है। फिर उन्हीं मम्मियों का कथन होता है- बचपन में तो ये पढ़ने में बहुत अच्छा था, पर ज्यों-ज्यों बड़ा होता गया, पता नहीं इसको क्या होता चला गया।
गीता में भगवान कृष्ण का भी यही संदेश है कि कर्म करो, पर उसमें कर्तापन का भाव न हो। कर्म का फल ईश्वर की देन है, न उसका गर्व करना है और न शोक मनाना है। रही बात यश की तो अच्छे कर्मों का यश खुद-ब-खुद फैलता है। उसके लिए किसी अखबार या न्यूज चैनल को प्रेस विज्ञप्ति भेजने की जरूरत नहीं है। आज भारत में तमाम ऐसे सामाजिक संगठन हैं जो कभी अपने कार्यक्रमों में मीडिया को नहीं बुलाते। उनका काम ही उनकी पहचान है। पहचान बनाने के लिए वो मीडिया को बुलाकर प्रेस ब्रीफिंग का रास्ता नहीं चुनते, बल्कि अपना पूरा ध्यान अपने काम पर केंद्रित रखते हैं। फिर क्या मीडिया और क्या सरकार, सब अपने आप उनको पहचानने लगते हैं।
लेकिन आज स्थिति एकदम उल्टी है। पान के खोखे से लेकर सीईओ के आॅफिस तक लोग अपने बारे में डींगें मारते दिखेंगे। मैंने ये किया, वो किया... सबकी बैंड बजा दी... कोई मेरे सामने टिक नहीं सकता... मैं नहीं होता तो उस दिन अनर्थ हो जाता.... वगैराह, वगैराह। हम इतने आत्ममुग्ध हो जाते हैं कि अपनी तरक्की का मार्ग ही बंद कर लेते हैं। हृदय में पल रहा अहंकार इतना बड़ा हो जाता है कि आगे बढ़ने ही नहीं देता। इसलिए सोच समझकर बोलें, अगर नहीं समझ आ रहा है कि कैसे किसी बात की चर्चा की जाए तो चुप रहने में ही भलाई है, क्योंकि मुंह से निकली हर बात के गहरे परिणाम निकलते हैं।
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